राजा की रानी
बाबाजी ने कहा, “एकाएक कैसे पहचानूँगा? तुम तो वृन्दावन के हमारे पहचाने हुए हो गुसाईं, और तुम्हारी दोनों ऑंखें तो रस की समुद्र हैं जो देखते ही ऑंखों में भर जाती हैं। जिस दिन कमललता आई थी, उसकी दोनों ऑंखें भी ऐसी ही थीं, उसे देखते ही पहिचान गया और बोल उठा, 'कमललता, कमललता, इतने दिनों कहाँ थी?” कमल आकर जो अपनी हो गयी तो उसका आदि-अन्त, विरह-विच्छेद नहीं रहा। यही तो साधना है गुसाईं, इसी को तो कहता हूँ रस की दीक्षा।”
मैंने कहा, “कमललता देखने ही तो आया हूँ गुसाईं, वह कहाँ है?”
बाबाजी बहुत खुश हुए। बोले, “उसे देखोगे? पर गुसाईं, तुम उससे अपरिचित नहीं हो, वृन्दावन में उसे अनेक बार देखा है। शायद भूल गये हो, पर देखते ही पहिचान जाओगे कि वह कमललता है। गुसाईं, उसे एक बार पुकारो न!” कहकर बाबाजी ने गौहर को पुकारने का इशारा किया। इनके निकट सब 'गुसाईं' हैं। बोले, “कहो कि श्रीकान्त तुम्हें देखने आया है।”
गौहर के चले जाने के बाद पूछा, “गुसाईं, मेरे बारे में सारी बातें शायद गौहर ने तुम्हें बताई हैं?”
बाबाजी ने सिर हिलाकर कहा, “हाँ, सब बताया है। जब उससे पूछा कि 'गुसाईं, तुम छह-सात दिन क्यों नहीं आये? तो उसने कहा कि श्रीकान्त आये थे।” यह भी उसने कहा कि 'तुम फिर जल्दी ही आओगे।” यह भी मालूम हुआ कि तुम बर्मा जाने वाले हो।”
सुनकर सन्तोष की साँस छोड़कर मन ही मन मैंने कहा, रक्षा हुई। डर था कि वास्तव में किसी अलौकिक आध्या त्मिक शक्ति-बल के कारण तो ये मुझे देखते ही नहीं पहिचान गये हैं। कुछ भी हो, यह मानना ही पड़ेगा कि मेरे बारे में इस क्षेत्र में उनका अन्दाज गलत नहीं है।
बाबाजी अच्छे ही जान पड़े। कम-से-कम असाधु प्रकृति के नहीं मालूम हुए। बहुत सरल। यह बाबाजी ने सरलता से स्वीकार कर लिया कि न जाने क्यों गौहर ने मेरी सब बातें- अर्थात् जितना वह जानता है, इन लोगों से कह दी हैं। कविता और वैष्णव-रस-चर्चा में वे कुछ-कुछ सनकी-से-कुछ विभ्रान्त से मालूम हुए।
थोड़ी देर बाद ही गौहर- गुसाईं के साथ कमललता आकर हाजिर हुई। उम्र तीस से ज्यादा नहीं होगी-श्यामवर्ण, इकहरा बदन, हाथ में कुछ चूड़ियाँ हैं पीतल की- सोने की भी हो सकती हैं। बाल छोटे-छोटे नहीं हैं, गिरह देकर पीठ पर झूल रही हैं। गले में तुलसी की माला और हाथ की थैली के भीतर भी तुलसी की जपमाला हैं। छापे-आपे का बहुत ज्यादा आडम्बर नहीं है, अथवा सुबह के वक्त तो था, पर इस वक्त कुछ मिट गया है। उसके मुँह की ओर देखकर मैं अत्यन्त आश्चर्यान्वित हो गया। सविस्मय यह खयाल होने लगा कि इन ऑंखों का और चेहरे का भाव तो जैसे परिचित है, और चलने का ढंग भी जैसे पहले कहीं देखा है।
वैष्णवी ने बात शुरू की। फौरन ही समझ गया कि वह नीचे के स्तर की प्राणी नहीं है। उसने किसी तरह की भूमिका नहीं बाँधी। मेरी ओर सीधे देखकर कहा, ?”कहो गुसाईं, पहिचान सकते हो?”
मैंने कहा, “नहीं। लेकिन ऐसा लगता है कि जैसे कहीं देखा है।”
वैष्णवी ने कहा, “वृन्दावन में देखा था। बड़े गुसाईं जी से नहीं सुना?”
मैंने कहा, “सो सुना है। पर मैं तो जन्म-भर कभी वृन्दावन नहीं गया।”
वैष्णवी ने कहा, “गये कैसे नहीं? बहुत पुरानी बात है, इसलिए अचानक याद नहीं आ रही है। वहाँ गायें चराते, फल तोड़कर लाते, वन-फूलों की माला गूँथकर हमारे गले में पहनाते-सब भूल गये?” यह कहकर वह होठों को दबाकर धीरे-धीरे हँसने लगी।
मैंने यह तो समझा कि मजाक कर रही है। पर यह ठीक नहीं कर सका कि मेरा या बड़े गुसाईं जी का, बोली, “रात हो रही है, अब जंगल में क्यों बैठे हो? भीतर चलो।”
मैंने कहा, “जंगल के रास्ते हमें बहुत दूर जाना होगा। कल फिर आयेंगी।”
वैष्णवी ने पूछा, “यहाँ का पता किसने बताया? नवीन ने?”
“हाँ, उसी ने।”
कमललता की बात नहीं बताई?”
“हाँ, बताई थी।”